गरबा : बाजारवाद का साधन नहीं, साधना का मर्म बनाएं


संदीप सिंह गहरवार


आज से नारी के शक्ति स्वरुप मां दुर्गा की आराधना का पर्व शारदेय नवरात्रि प्रारंभ हो रहा है।पूरे देश में आराधना के इस महापर्व को लेकर जोरों से तैयारियां चल रही हैं या पूर्ण हो गई हैं। इस बार बारिश के चलते जरुर थोड़ा तैयारियों में व्यवधान आ रहा है। बारिश की वजह से कहीं झांकी बनाने में परेशानी आ रही है तो कहीं मूर्तियों का आकार पूर्ण करने में थोड़ी दिक्कत हुई है। इसके बाद भी सभी इस प्रयास में हैं कि आज तक सभी तैयारी पूर्ण हो जाय। शारदेय नवरात्रि के प्रारंभ होते ही शहरों और कस्बों में देवी आराधना के नाम पर गरबा करने का चलन इन दिनों आम हो गया है। अब तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि भारतीय धर्म और दर्शन में मां दूर्गा की अराधना का यह पर्व भक्ति से ज्यादा उपभोक्तावाद की प्रतिस्पर्धा में शुमार हो गया है। सात साल से लेकर सत्तर साल तक की उम्र के प्रतिभागी इन गरबा के आयोजनों में भागीदारी करते देखे जाते हैं।


देश के गुजरात राज्य से प्रारंभ हुआ देवी की अराधना का यह पर्व आजकल अराधना की जगह पूरी तरह नारी देह का प्रदर्शन के साथ-साथ श्रंगाररुपी प्रतिस्पर्धा का विकट रस्वरुप बन चुका है। बिडंबना यह है कि जिस समाज को इसके विकृत और बिगड़ते स्वरुप का विरोध कर उसमें सुधारात्मक प्रयास की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, वह स्वयं उसी का हिस्सा बन गया है। हालत इस कदर बिखराव की ओर है कि अब यह उसी समाज का जीवन स्तर बन गया है। गरबा पहले भक्ति का स्वरुप हुआ करता था, आज पूरी तरह से बाजारवाद की गिरफ्त में आ चुका है। अब भक्ति का स्थान श्रंगारिता ने ले लिया है। इस महापर्व में जहां संयम की साधना होती थी वहीं आज यह पूरी तरह असंयमित और फूहड़़ हो गया है। आराधना के नाम पर मिली खुली छूट का फायदा भले ही हमारे सभ्य समाज ने नहीं उठाया हो पर उपभोक्तावादी बाजार ने भरपूर उठाया है। नौ दिन के इस उल्लास रुपी पर्व में हमें इस बात की चिंता भले ही न हो की कितना और किस प्रकार का जप-तप करना है पर इस बात की चिंता जरुर देखी जा रही है कि गरबे की तैयारी में परिधान किस प्रकार का तय करना है। मां दुर्गा की अराधना से कहीं ज्यादा गरबा देखने आये तथा गरबे में प्रतिभागी सहकर्मी के सामने खुद को कितना आकर्षक बना सके, इस बात की तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। आज इस 
उपभोक्तावादी आयोजन से हमारी डूबती जा रही संस्कृतिक 
संस्कारों को बचाने की महती आवश्यकता है। यदि हमने अपने बच्चों के सामने देवी आराधना रुपी महापर्व का सही स्वरुप नहीं रखा तो समाज में स्त्री को देवी के रुप में पूजने की हमारी सनातन परंपरा पूरी तरह खत्म हो जायेगी। वर्तमान में स्त्री को लेकर समाज में जिस तरह की विकृति
मानसिकता अपना भयावह रुप ले चुकी है वह और बढ़ती जायेगी। हमारा आने वाला कल इस गरबे की भोग विलासिता को ही देवी आराधना समझ कर इसमें डूबता चला जायेगा।इसलिये यह आवश्यक है कि हम अपनी पीढ़ी के सामने पहले खुद फिर अपने परिजनों और बच्चों को धर्म का सही मर्म समझाएं। क्योकि शास्त्रों में भी लिखा है कि असत्य को देखकर उसका प्रतिकार न करना भी एक अपराध है। भले ही हम किसी भी प्रकार के उपभोक्तावादी और फूहड़ गरबे के आयोजन में  प्रतिभागी न हो पर उसे देखने जाना या अपने परिजनों को उसमें शामिल करने की अनुमति देना भी किसी अपराध से कम नहीं है। तो आइये हम संकल्प ले कि नवरात्रि महापर्व को हम भोग विलास से हटाकर सही मायने में देवी की अराधना पर्व बनाएंगे अन्यथा आने वाली पीढ़ी के हम गुनाहगार कहलाएंगे।
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि.......
'समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध है।
किंतु मौन हो जो बैठे हैं, समय 
लिखेगा उनके भी अपराध'।
 
संदीप सिंह गहरवार
पत्रकार, भोपाल
मो-9584049286