बात पते की/ श्रुति कुशवाहा
ऐसे जघन्य अपराधों पर हर बार गुस्सा उमड़ता है, मन खौलता है और उस भावावेश में अक्सर ये ख़याल भी जन्म लेता है कि ऐसे अपराधियों को सरेआम गोली मार देनी चाहिये, फाँसी दे देनी चाहिये.. लेकिन ये क्षणिक उबाल है..एक सभ्य समाज में न्याय व्यवस्था बंदूक के हवाले नहीं की जा सकती। अदालती कार्यवाही, जांच प्रक्रिया, न्यायप्रणाली को दुरुस्त करने की ज़रूरत है। फास्ट ट्रैक कोर्ट और मामलों के जल्द निपटारे की ज़रूरत है। ये एक ग़लत परिपाटी की शुरुआत है। अगर पुलिस ही एनकाउंटर के नाम पर फैसले करने लगेगी तो वो दिन दूर नहीं जब अपराध साबित हुए बिना ही सज़ा तय कर दी जाएगी, और इसमें जाने कितने निरपराधी भी मारे जाएंगे।
यहां दोषियों के साथ कोई सहानुभूति नहीं है..लेकिन आज मनाया जा रहा जश्न दरअसल हमारी न्याय व्यवस्था की नाकामी का जश्न है। ये बंदूक की जीत का जश्न है। हम अविश्वास भरे समय में और अविश्वास से भरते जा रहे हैं। यहां मैं एनकाउंटर की सत्यता की बात तो कर ही नहीं रही कि कैसे चारों निहत्थे आरोपी भाग निकलने का मौका पा गये, कैसे पुलिस टीम एक को भी जीवित नहीं पकड़ पाई, कैसे वहां सुरक्षा व्यवस्था में इतनी चूक थी कि आरोपियों को भागने का पर्याप्त अवसर मिल गया आदि आदि।
हम सुरक्षित समाज के निर्माण की विफलता के सोग में बंदूको के साये में पनाह पाने की कोशिश कर रहे हैं..लेकिन ये दुखद सत्य है कि बंदूकें बेगुनाहों को ज़्यादा निशाना बनाती है। इस ट्रेंड पर खुश होने से पहले एक बार सोचिये..क्या हम किसी लीगल लिंचिंग जैसी व्यवस्था की वकालत तो नहीं कर रहे, जो अविश्वास आज न्यायप्रणाली पर उपजा है कल क्या वो इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई पर नहीं उठ सकता।
हमें एक सुरक्षित विश्वसनीय बेहतर लोकतांत्रिक समाज चाहिये या जंगलराज...
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