सुनो ........
अभी कुछ दिनो पहले ही भोर मे तुमको
दूर से मुझे देखकर, पलटकर जाते हुये महसूस किया।
वो एक सामान्य भोर ही थी, नही लगा की तुम आओगी,
जानती तो छुप नही जाती...
पर जब अस्पताल के बिस्तर पर पड़े हुये,
सड़क पर अशक्त पड़े,गुजरे लम्हे याद करने पर जाना की तुम दूर से देखकर पलट कर चली गई।
तुम तो कई बार पलट कर गई हो ...
है ना ?
माँ ने भी बताया था तुम आई थी माँ के गर्भ मे,
मुझे छू कर चली गई थी।
कभी छू कर,कभी पास से निकल कर और कभी दूर से देखकर पलटी हो ।
तुम भी जानती हो अभी तुमसे मिलने का,साथ जाने का वक़्त नही आया है।
फिर आती क्योँ हो ?
क्या देखकर पलट जाती हो ?
मै डर जाती हूँ.....
आज भी वैसे ही जब माँ के साथ जुड़ी थी।
शिशु थी तब भी और माँ हूँ तब भी
कँपा जाती हो तुम मुझे ....
तुम हर बार पलट कर चली जरूर गई पर ,
अपनी परछाइयों के टुकड़े कुछ दिलो के कोनों मे बैठा गई ,
जिन कोनो पर मेरा हक था,जो मेरा घर आँगन थे
बार बार ये काली,डरावनी परछाइयाँ वहाँ से निकल कर मेरे पूरे वजूद पर छा जाती हैँ ,
तब मै बहुत डर जाती हूँ और ये डर तुम्हारे तरफ धकेलने लगता है।
फिर मै घबराकर उजाले की तरफ सरपट दौड़ जाती हूँ।
ये भी तुम कही से देखती तो होगी .....
है ना ?
सड़क पर पड़े गुजरे 30 मिनटों को याद करने पर दर्द तो याद है,
खौफ याद नही आता।
कुछ देवदूत मानव के रूप मे मेरी रक्षा कर रहे थे।
इसीलिये तुम दूर से ही पलट कर चली गई ना...
है ना ?
क्या तुम मेरी सहेली हो ?
मेरे साथ लुका छिपी खेल रही हो ?
पर मुझे नही खेलना तुम्हारे साथ।
मै तो नदी,पहाड़,जंगल..
पेड़,पौधे,फुल..
पशु, पक्षी, मछलियों..
के साथ खेलना चाहती हूँ।
तुम्हारे साथ नही खेलूँगी....
तुम बुरा मानोगी तब भी नही ....
प्रमिला कुमार
पूर्व सदस्य म.प्र. राज्य उपभोक्ता आयोग
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