भारतीय लोकतंत्र में आरक्षण: वैशाखी या सहारा


प्रशांत सिंह


संविधान निर्माताओं ने अपनी दूरदर्शी सोच से संविधान में सभी देशवासियों को भिन्न-भिन्न आधार पर समान अधिकार देने का प्रयास किया था।  देश में असमानता मुख्यत: सामजिक रूप में देखने को मिल रही थी। पूर्व में प्रचलित वर्ण व्यवस्था में  लोगों ने परिवर्तन कर समाज में वर्ग व्यवस्था स्थापित की एवं वर्ग के आधार पर ही सामजिक असमानता जैसे कि उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग को मान्यता प्रदान की गयी। कार्यों के स्थान पर कुल को वरीयता दी जाने लगी। तब जरूरत थी कि सामाजिक विषमता को खत्म किया जाए एवं इसी उद्देश्य से आरक्षण को उपकरण के रूप मे प्रयोग किया गया। आरक्षण की विचारधारा कोई नई विचारधारा नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत तो ब्रिटिश काल में ही देखने को मिली थी, जहां महात्मा ज्योतिराव फुले ने सरकारी नौकरियों मे आनुपातिक आरक्षण की बात कही थी। आरक्षण के कई प्रारूपों को देखा जा सकता है, जैसे कि जातिगत आरक्षण, शिक्षा आधारित आरक्षण, लैंगिक आरक्षण इत्यादि। बहरहाल भारत में आरक्षण का मुख्य आधार जातिगत ही रहा है। भीम राव अम्बेडकर के द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग के लोगों को आरक्षण के माध्यम से विशेष अधिकार प्रदान किया गया। परंतु शायद बाबा साहब का मानना था की समाज में स्थायी रूप से आरक्षण की आवश्यकता नहीं है, अत: उन्होंने आरक्षण मात्र 10 वर्षों के लिए लागू करने का सुझाव दिया, एवं आवश्यकता पडऩे पर  वृद्धि की बात कही। उनका कहना था  कि आरक्षण कोई बैसाखी नहीं बल्कि सहारा मात्र है, परंतु  देश के राजनीतिज्ञों ने अपनी रोटी सेकने के लिए आरक्षण को सामजिक विकास की विचारधारा से परिवर्तित कर वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बना दिया। आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य था कि सामजिक भेदभाव को खत्म किया जाए परंतु विडम्बना यह है कि वास्तविकता मे आरक्षण सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा दे रहा है। आज समाज में वास्तव में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें सहारे की आवश्यकता है परन्तु विशेष जाति के न होने के कारण ऐसे लोगों को आरक्षण प्राप्त नहीं है। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें ऐसे किसी सहारे की आवश्यकता नहीं है लेकिन विशेष समुदाय से होने के कारण इसका लाभ प्राप्त कर रहे हैं। 
इन परिस्थितियों को देखकर तो यह कहा जा सकता है कि सरकार के द्वारा पुन: इस मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता है । 
यदि आज समाज मे जातिगत आरक्षण अपने मूल उद्देश्य से  भटक गया है तो इसे  समाप्त  किया जाना चाहिये एवं  आवश्यकता है यदि  आरक्षण की तो उसका आधार आर्थिक होना चाहिये। देशहित के लिए आरक्षण के सन्दर्भ मे महात्मा गाँधी ने भी यह कहा है कि देश मे आरक्षण जाति, धर्म पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर हो। संविधान में तो समानता के अधिकार की बात कही गयी है परन्तु सरकार के समक्ष प्रश्न यह है कि जातिगत आरक्षण के कारण  क्या समाज में समानता विद्यमान हो पाई है ? आज आवश्यकता है सभी को यह समझने की, कि जातिगत आरक्षण के माध्यम से सामजिक भेदभाव (जातिगत भेदभाव) को खत्म नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसके लिए लोगो की विचारधारा मे परिवर्तन की जरूरत है, और यह परिवर्तन जाति पर आधारित आरक्षण से आना संभव नहीं है। 


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