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अर्चना सिंह "अना" की कहानी "साथी"



साथी

मौसम के करवट बदलने के साथ ही गुलाबी जाड़ा सुबह और सांझ पर  अपनी गिरफ्त कहने लगा था। बरामदे में बैठी मानवी अचानक एक सर्द हवा के झोंके से सिहर उठी, ठंड का अहसास होने पर उसने पास ही तिपाही पर रखी शॉल उठाकर लपेटनी चाही तभी उसकी गर्दन में कुछ चुभ गया। कहीं कोई कीड़ा तो नहीं, घबराहट में  मानवी ने एक झटके से शॉल उतार कर झाड़ी तो एक कलम टप्प से नीचे गिर कर मानवी को मुंह चिढ़ाने लगी।

ओह तो ये तुम हो... मैं तो डर ही गई थी.. मन ही मन बुदबुदाती मानवी के अधरों पर मृदु स्मित की एक हल्की सी रेखा खिंच गई। लॉन में लगे अशोक की ऊंची शाखाएं सलेटी दुशाला में सिमटने लगीं थीं ... शाम को दिए गए पानी की बूंदें अभी तक  छोटे पौधों के फूल- पत्तों पर सुस्ता रहीं थीं, हल्की हवा से टहनियां हिलने पर यूं आभास हो रहा था मानो ट्यूब लाईट की दूधिया रौशनी उनके साथ मानों आँख मिचौली खेल रही हो ।

कस कर शाल लपेटती हुई मानवी उठ खड़ी हुई  कि उसकी नजर  नीचे गिरी कलम पर पड़ी... अरे! कहते हुए उसने झुक कर  कलम उठा ली। 

ग्यारसी बाई! ....अंधेरा घिर आया है  .. चलो जल्दी घर जाओ... भीतर आते ही मानवी ने रसोई में काम करती ग्यारसी को चेताया। दीदी! पहले आप गरम गरम खाना खा लो फिर रसोई समेट कर चली जाऊंगी ग्यारसी बोली.... अरे... नहीं... नहीं...आज कुछ खाने का मन नहीं है बस सूप पीऊंगी, और वो  मैं बना लूंगी तुम जाओ ... ठंड बढ़ रही है, और हां सुबह जल्दी आना।

रसोई समेट सूप का कप हाथ में लिए मानवी सोफे पर बैठी ही थी कि कुछ चुभने के अहसास से उठ खड़ी हुई... देखा तो एक पैन जीभ निकाले मुंह बाए उसकी ओर देख रहा था। झुंझलाकर मानवी ने पैन उठाकर मेज पर पटक दिया और नैटफ्लिक्स पर अपनी पसंद का कोई प्रोग्राम ढूंढने लगी। आधे घण्टे की खोजबीन के बाद भी मनमाफिक प्रोग्राम ना पाकर खीझ उठी, न जाने क्या हो गया है समाज को   आजकल  न तो ढंग की कोई  फिल्म या सीरियल बन रहे हैं और ना ही कोई अच्छा मनोरंजन देखना चाहता है। जहां देखो वही बिना सिर पैर की ऊटपटांग सीरीज ...देखे भी तो कोई क्या देखे ... अपने आप से बात करते हुए दो घूंट में ही सूप का कप खाली कर मेज़ पर पड़े पैन को एक नजर देख, अनदेखा कर सोने के लिए अपने कमरे की ओर बढ़ गई।

पलंग का हाल देखकर मानवी झल्ला उठी...   दो डायरी, एक टैबलेट और भांति भांति के पैन पैन्सिल पूरे पलंग पर कब्जा किए थे। ओफ्फो .... तुम क्यों नहीं मेरा पीछा छोड़ते... कहीं भी रहूं वहीं पहुंच जाते हो। यूं लगा मानो मानवी उन सबके साथ बात कर रही हो, हटो एक तरफ,  मुझे नहीं है तुम्हारी जरूरत और मानवी ने सारा सामान हाथ से समेट कर एक तरफ़ कर दिया। सोने का उपक्रम करती मानवी ने एक उचाट सी नजर डायरी पर डाली... डायरी के पन्ने फड़फड़ा उठे मानो हाथ में उठाने का  निमंत्रण दे रहे हों ... तभी एक पैन भी लुढ़कता हुआ मानवी की उंगलियों से खेलने लगा जैसे कह रहा हो ... कब तक दूर रहोगी, तुम भले ही कितनी भी नाराज़ रहो हमसे, हम तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। हर हाल में तुम्हारा साथ देने का वादा जो किया  है तुमसे।

ये क्या...कुछ ही देर बाद कमरा शब्दों के कोलाहल से गूंज उठा... डायरी मानवी की गोद में विराजमान थी और पैन उसकी उंगलियों में। शब्द दर शब्द लय साधती गुनगुनाती मानवी एक नई रचना रचने में व्यस्त थी।



अर्चना सिंह 'अना'

 जयपुर

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