हम से पहले की औरतें,
ब्लाउज व चूड़ी में,
लगाए रखती थी सेप्टिपिन...
ये सेप्टिपिन,
हर मौका-बेमौका काम आता....
बाबूजी के पैजामे में,
नाड़ा डालने से लेकर,
टूटी हवाई चप्पल के,
संग भी जुड़ जाता...
दिदिया जब कभी साड़ी पहनती,
एक नहीं कई-कई,
सेप्टिपिन की डिमांड करती....
और अम्मा,
अपने ख़ज़ाने से,
खुशी खुशी दे दिया करती....
अम्मा क्यों नहीं होती,
हर वक्त पास हमारे...
कल के कार्यक्रम में,
साड़ी पहनना आवश्यक है,
सो घर में,
यहाँ-वहाँ सेप्टिपिन ढूंढ़ना जारी रहा...,
पर अफसोस,
कमबख्त एक भी सेप्टिपिन,
हाथ न लगा,
और याद आ गई,
अम्मा की लाल चूड़ियों वाली कलाई,
जहाँ बेचैनी से लटकता सेप्टिपिन..
इसी फिराक में रहता कि,
कब,कहाँ से उसे पुकारा जाए,
और वो अम्मा की गिरफ्त से,
भाग निकले...
अच्छे से याद है,
स्कूल के दिनों में,
ओढ़नी को पिनअप करने के लिए,
रोज दो पिनों की आवश्यकता होती,,,
औऱ हम लाल चूड़ियां की,
गिरफ्त से रोज दो सेप्टिपिन को,
आजाद करा लाते...
बहुत लापरवाह थी उन दिनों मैं....
क्योंकि जानती थी,
कोई है,
कोई है,जो मुझ से ज्यादा,
मेरी परवाह करता...
काश की मैं भी,
सेप्टिपिन की तरह,
हमेशा अम्मा की कलाई में,
लटकती रहती...
खैर....खैर...
कल महिला दिवस पर,
साड़ी पहननी है,
तो अब बाजार जाना होगा,,,
आखिर सेप्टिपिन जो खरीदना है....
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