अंतर्मन की वेदना


सच सुना था बुरे वक्त मे तो
साया भी साथ छोड़ देता है
फिर तुम तो महज ईंसान थे
जिसे मै खुदा मान बैठी थी
मैने सदा ही बरगद की छाँव दी तुम्हे
तो क्यूं मुझे तुम्हारे दर पर शरण नहीं मिलती
क्यों तुम मेरे लिए सिर्फ अशोक वृक्ष बनकर रह गए
तुम्हारे प्रेम की ठंडी छाँव को निरंतर तरसता रहा मेरा मन,
तुलसी बन मैने चरणों मे रहना चाहा
क्यों मुझे चम्पा का फूल बना दिया
जो कभी ईश्वर की कृपा नहीं पा सकता
जो कभी चरण रज नहीं ले सकता
क्यों मेरे अश्रु तुम्हारे नाम पर नही बरस सकते
क्यों मेरी पीड़ा को हरकर तुम हरि नहीं हो जाते
क्यो नहीं मेरी शिथिल देह को तुम्हारा आलिंगन मिलता
क्यों नहीं मेरी प्रीत के समर्पण से
तुम्हारा हृदय कंवल खिलता
क्यों एक प्रश्नचिन्ह की तरह मेरी
भावनाएं रूक गई यहां
क्यों नही मेरे प्रश्नों का उत्तर बन तुम आजाते मेरे जीवन में।



सुषमा सिंह (कुंवर)
भोपाल


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