अब किस बहन को दूंगा मैं राखी की वो साड़ी


स्मृति शेष.....- गोविंद मालू


 कौन जानता है कि उसके हिस्से में कितनी साँसे हैं? कौन जानता है कि कब लोक बदल जाए? कौन जानता है कि जीवन को कैद करके रखने की चाहत कब बिखर जाए औऱ इस संसार से विदा लेना पड़े। क्योंकि, कुछ लोगों का असमय चला जाना सुहाता नहीं। मन भी इसके लिए तैयार नहीं होता। मेरा अपना दुःख ये है कि इस बार की राखी पर स्नेह की डोर नहीं बंधेंगी। माता की तरह का दुलार, दोस्त की तरह मदद, बहन की तरह स्नेह करने वाली वात्सल्य और संवेदना की संवादी सुषमाजी इतनी जल्दी हमेशा के लिए सुप्त हो जाएंगी, यह सहज भरोसा करने का मन नहीं कह रहा।
राजनीति की कोकिला, पारदर्शिता की पर्याय, याददाश्त की सरस्वती दीदी का अचानक चला जाना स्तब्ध कर गया। उनकी सहजता लेकिन उच्च आदर्शों की प्रणेता से यूँ तो 1993 से परिचय रहा। लेकिन, बेहद अपनापन 1996 की तीन दिन की मीडिया कार्यशाला में हुआ जब उनसे मिलना हुआ। प्रभात झा, मैं और सुभाष राव ने मध्यप्रदेश (छतीसगढ़ सहित) का प्रतिनिधित्व किया था। खुले सत्रों में मध्यप्रदेश की और से मुझे बोलने का सौभाग्य मिलता और राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी सुषमा जी से समाधान मिलता, तर्क वितर्क होते। उस कार्यशाला में जहाँ देश के सभी वरिष्ठ नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी, नरेन्द्र मोदी, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, प्रमोद महाजन, गोविंदाचार्य, डॉ जेके जैन के मार्गदर्शन के साथ हमारे साथी प्रतिभागियों में दिवंगत मनोहर पर्रीकर, वर्तमान राज्यपाल  लालजी टंडन, रामचन्द्र विकल, गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी आदि थे। देशभर के 72 चुनिंदा मीडिया कार्यकर्ताओं का संयोजन सुषमाजी ने उम्दा व्यवस्थाओं के साथ नए टेक्नोलॉजी, विदेश में केम्पेन कैसे चलता है आदि का प्रायोगिक तौर पर सभी प्रतिभागियों से अभ्यास करवाया। ऐसी कार्यशाला फिर कभी देखने में नही आई।



स्मरण करने को किस्से बहुत हैं  लेकिन, मेरे जैसे छोटे कार्यकर्ता को बड़ी बहन के नाते स्नेह देकर परामर्श करना बेहद विश्वास तो है ही, परखने की क्षमता का उनका व्यक्तित्व भी था। 2009 में मध्यप्रदेश से चुनाव लड़ने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने आज्ञा दी, तो भोपाल और विदिशा में से उन्हें चयन करना था। एक दिन रात 9 बजे फोन आता है कि गोविन्द मुझे बताओ कहाँ से चुनाव लड़ना ठीक रहेगा, दोनों ऑप्शन हैं। जब मैंने विदिशा की सलाह दी, तो उन्होंने कारण भी तर्क भी पूछे कि विदिशा ही क्यों? मैने जो भी विस्तार से बताया उससे वे सहमत हुई और कहा शिवराज जी का भी भी विशेष आग्रह है कि मैं विदिशा से लड़ूँ। उन्होंने यहीं से चुनाव लड़ना तय भी कर लिया। वे एक माह में ही विदिशा के कार्यकर्ताओं को नाम सहित पहचानने लगीं, तो मैंने उनसे विनोद में कहा दीदी वह कौन सा नुस्खा  हैं जो आपकी याददाश्त इतनी है। हमें भी वह नुस्खा बता दीजिए, तो वे ठहाका लगा देती। समय की पाबन्द इतनी की घड़ी की सुई के अनुसार सुषमाजी को हाजिर पा लो। एक बार मैंने सप्ताहभर पहले इंदौर में घर के छोटे सदस्य वेदांश के जन्मदिन पर घर के छोटे से कार्यक्रम का जिक्र किया। संयोग से उनके संसदीय क्षेत्र की देवास में एक शासकीय बैठक में उसी दिन का आने का उनका कार्यक्रम भी बना। बैठक समाप्त होते ही उन्होंने कहा गोविन्द तुम्हें घर जाना होगा, कार्यक्रम में मैं भी चलती हूँ! माताजी से और परिवार से मिलना हो जाएगा। उन्होंने काफिले को इंदौर मोड़ दिया। उनके इस अपनेपन से मैं अभिभूत हो गया। घर में भी सब आश्चर्य मिश्रित ढंग से अचानक उनके आगमन की तैयारी में जुट गए। माताजी, बुआजी को प्रणाम कर उनसे मारवाड़ी भाषा में बात की, तो परिवार में लगा कि कोई हमारी घर की सदस्य हैं। इतनी अच्छी मारवाड़ी भाषा बोलने का कारण उन्होंने बताया कि स्वराजजी का घर (यही सुषमाजी का ससुराल) मारवाड़ का ही है। नेता प्रतिपक्ष बनने पर प्रदेश में उन्होंने पार्टी पदाधिकारियों, सांसदों, पत्रकारों को भोज देने का निश्चय किया और जिम्मेदारी मुझ पर सौंप दी। मैं उस समय आवक और चकित रह गया, जब मैंने उस भोज निमंत्रण पत्र का जो मजमून मैंने बनाया था उसमें मेरा नाम भी छपकर आया। वे निमंत्रण छपे दिल्ली में थे, पर उस ड्राफ्ट में निवेदक में सुषमाजी ने मेरा नाम डलवा दिया। जब मैंने कहा 'दीदी मेरा नाम तो कार्ड के मजमून में था ही नहीं, फिर कैसे छपा?' तो उनका जवाब था 'मेरी तरफ से तुम निमन्त्रणकर्ता हो।'
  उनसे राखी बंधवाने का सिलसिला बरसों चला। हर साल उस निमित्त बड़ी बहन के नाते मैं उन्हें एक साड़ी भेंट करता, जिसे वो बड़े स्नेह से पहनती और बताती गोविन्द तुम्हारी दी साड़ी मैंने अमुक दिन पहनी थी। अब कौन बताएगा और किसे दूँगा वह स्नेह की एवज में छोटी सी भेंट ?


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