सारिका श्रीवास्तव की कविता........
कुछ तूफान उसके अंदर था, कुछ तूफान मेरे अंदर था,
दोनों ही अंदर ही अंदर लड़ रहे थे इन तूफानों से ,
मैं सोच रहा था उठते इस तूफान को बदल दूं ठंडी हवा के झोंकों में ,
उधर उसके तूफान लगे थे तबाही मचाने में
कौन जाने किसका तूफान तेज था ?
मेरी अंतरात्मा ने दी मुझे आवाज कहा ,
तुझे तो विरासत में मिली है सहेजने और संभालने की अदा
तू अपना फर्ज निभा
उसकी तूफान को अपनी तूफान से मिटा
तो क्या हुआ उसके अंदर नफरत का बीज था ,पर तेरे जड़ों में भी तो प्यार का निचोड़ था
मैंने भी ठान लिया सुनूंगा अंतरात्मा की निभाऊंगा अपना फर्ज
जो होगा देश हित में उठाऊंगा वही कदम
जीते जी नहीं होने दूंगा देश के टुकड़े
सिर मोर मुकुट अपने कश्मीर को नहीं बटने दूंगा
सैलाब उमड़ पड़ा था तन मन और आत्मा पर
सबकी निगाहें टिकी थी
साथ ही मेरे अंतरात्मा की आवाज
सो ले ही लिया फैसला और कर दी आवाज बुलंद
मेरा है और मेरा ही रहेगा मेरा सिर मोर मुकुट
मेरे हैं अपने लोग वहां के, जिम्मेदारी मेरी है
देना है हक उनको भी जो उनका अपना है
कर्तव्य बस मुझे यही निभाना था ,
एक उठते तूफान को सही दिशा में ले जाना था
उसके मन की वह जाने
मैंने अपने मन की कर डाली
अपनों को पास बुलाया, उनका अपना अधिकार दिलाया
मेरे मन के तूफानों को मिल गया ठहराओ
उसके मन की वह जाने मेरे मन की मैं।
सारिका श्रीवास्तव
पत्रकार एवं लेखिका, छिंदवाड़ा
Comments