कोरोना वायरस-जैविकीय बनाम वैचारिक संक्रमण आपदा


कोरोना वायरस.......एक ऐसा शब्द जो आज भारत ही नहीं अपितु वैश्विक पटल पर ज्वलन्त समस्या बन चुका है। चारों तरफ मौत का तांडव, आतंक का साया, अपनों के साथ अनहोनी की आशंका से कांपती हसलियां..कब, क्यों, कैसे और आखिर कब तक जैसे प्रश्नों का बढ़ता दावानल...आखिर क्या है यह संक्रमण और इस संक्रमण से रोकथाम का उपाय? 
सामजिक दूरस्थता....स्वयं को चारदीवारी में कैद कर लेना या यूं कहें, लॉकडाउन अर्थात एकांतवास/  अज्ञातवास। यदि यही सुरक्षित रहने की एक मात्र संजीवनी है, तो क्या कारण है फिर इस करुणा वायरस उर्फ कोरोना वाइरस के उत्तरोत्तर बढ़ते संक्रमण का। संक्रमण से यहां तात्पर्य मात्र जैविकीय संक्रमण नहीं, आपदा की इस मुश्किल घड़ी में वैचारिक संक्रमण से है। लॉकडाउन के दौरान घरों में बढ़ती हिंसाओं के आकड़ों में तीव्रता से होती वृद्धि प्रमाण हैं कि यह वायरस न सिर्फ घरों से बाहर अपितु घरों के अंदर अधिक घातक रूप में हमारे सामने उभरकर आया है। बेहद शर्म की बात है कि आज भी देश में प्रजातंत्र या तो किसी वैश्या के कोठे पर जिंदा है या कोरोना जैसी माहामारी की शक्ल में। लॉकडाउन का अभिप्राय सामाजिक रूप से स्वयं को पृथक कर लेना है न कि अपनी अंतरात्मा, अपनी चेतना का लॉकडाउन। घरेलू हिंसा बताती है कि जैविकीय से इतर हमारा समाज वैचारिक रूप से तेजी से संक्रमित हो रहा है। 
पत्नी को गरम तेल से जला देना, टुकड़े कर कर सड़क पर फेंक देना, बीवी बच्चों के साथ बढ़ती मार-पीट की सुर्खियां प्रत्यक्ष रूप से बड़ा सवाल उठाती हैं विवाह रूपी संस्था पर। यदि विवाह वास्तव में प्रेम की परिणति है तो पारस्परिक आकर्षण क्यों नहीं ? एक यक्ष प्रश्न...समता पर, स्वच्छंदता के अभिप्राय पर, एकरसता में समता के अभाव पर। इस लॉकडाउन अर्थात अज्ञातवास/एकांतवास  में अगर घर का खाना खा कर तुम ऊबे तो मैं क्यों नहीं ? तुम्हारी एकरसता में पुरुषार्थ है तो मेरा स्त्रियार्थ कहां ? स्त्रियों और बच्चों के साथ बढ़ते आंकड़ें गवाह हैं कि आज वैश्वीकरण के प्रभाव में कुटुम्ब समाप्त होते जा रहे हैं, परिवार समाप्त होते जा रहे हैं, समाप्त होते जा रहे हैं घर।  पहले जहां  लोग घर पर आकर स्वयं को तनावमुक्त अनुभव करते थे, वहीं आज तनावमुक्ततता  बाजारों में ढूँढी  जाती है।  कोरोना उस अहमग्रसित  मानसिकता के समान है जो घर से बाहर ही नहीं संक्रमित कर रहा अपितु घर के अंदर वैचारिक मार्ग से प्रवेश कर चुका  है। आज स्त्री-पुरुष मकान में तो हैं मगर पति-पत्नी घर में नहीं। चारदीवारी में देह तो कैद है परन्तु करुणा नहीं। करुणा विहीन इंसान उस संक्रमित रोगी के समान है जो पूरी सृष्टि को समाप्त कर सकता है।  इस करुणाविहीनता ने आधी आबादी को ध्वस्त कर दिया है और इसके तीव्रता से बढ़ते संक्रमण से तेजी से ध्वस्त होते जा रही है रिश्तों की इम्यूनिटी, अर्थात परेशानियों से लडऩे की क्षमता। बिखरते जा रहे हैं सपने, झुलसती जा रहीं है आशाएं।  आज घर में लोग कैद हैं।  घर लौटे हैं स्त्री और पुरुष, उनकी मजबूरियां, उनकी बेबसी, उनकी कुंठाएं, उनके आदेश, स्त्रीत्व तो कहीं पुरुषत्व, लौटे हैं उनके वैमनस्य, अतृप्त कामनाएं। निषेध से प्रारम्भ हुई यात्रा जिसका अंत निषेधात्मक सुनिश्चित है। उनका घर में रुकना स्वाभाविक नहीं, अस्वाभाविक, विचारधारा अस्वाभाविक, सभी योग अस्वाभाविक, परिणाम अस्वाभाविक। लोग एक साथ एक मकान में तो हैं मगर घर में नहीं, दीवारों में रह रहे है मगर दिलों में नहीं। आकाश को घेर देने से मकान तो बनते हैं जो निस्संदेह सूचक हैं उन्नति के परन्तु घर नहीं जो सूचक हैं जीवन के, खुशियों के, आशाओं के। आज इस क्रान्तिकाल में आवश्यकता है वैचारिक संक्रांति की, चेतना रुपी लॉकडाउन से बाहर आने की, मकान को घर बनाने की, सूख चुके आंसुओं को एक दूसरे के कंधे पर सर रखकर बहा देने की, संबंधों पर मरहम लगाने की।  तो क्यों ना सदुपयोग करें इस अज्ञातवास का। कोरोना से लडऩा है तो करुणा में लगे वाइरस को पृथक  करने का। रिश्तों को समझने का.....रिक्त स्थानों को भरने का। 



डा.  राखी अग्रवाल
(मनोचिकित्सक)  नई दिल्ली                                                                 


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