-बस यूं ही-
सिहरती साँसों का, धड़कन का, ज़िन्दगी का चराग़,
बुझे न वक़्त से पहले कभी किसी का चराग़ ।
इसी के नूर से होंगी दुआएँ मेरी क़ुबूल,
जला के रक्खा है मैंने जो आजिज़ी का चराग़।
किसी की ज़ीस्त में तारीकियों के पहरे हैं,
किसी के वास्ते रोशन है आरती का चराग़।
बुझा न पाएगा मज़हब की आंधियों का जुनूं,
हमारे ख़ून से रौशन येआशिक़ी का चराग़
जनाबे मीर का ग़ालिब का ख़ुद ये कहना है,
जिगर के ख़ून से जलता है शाइरी का चराग़।
पड़ा जो वक़्त तो रस्ता यही दिखाएगा
दयार ए इश्क़ में रक्खा ये आख़री का चराग़।
यही दुआ है कि हिन्दोस्तां की मिट्टी से
"शिखा" बनाए न हरगिज़ कोई बदी का चराग़।
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