साथी मौसम के करवट बदलने के साथ ही गुलाबी जाड़ा सुबह और सांझ पर अपनी गिरफ्त कहने लगा था। बरामदे में बैठी मानवी अचानक एक सर्द हवा के झोंके से सिहर उठी, ठंड का अहसास होने पर उसने पास ही तिपाही पर रखी शॉल उठाकर लपेटनी चाही तभी उसकी गर्दन में कुछ चुभ गया। कहीं कोई कीड़ा तो नहीं, घबराहट में मानवी ने एक झटके से शॉल उतार कर झाड़ी तो एक कलम टप्प से नीचे गिर कर मानवी को मुंह चिढ़ाने लगी। ओह तो ये तुम हो... मैं तो डर ही गई थी.. मन ही मन बुदबुदाती मानवी के अधरों पर मृदु स्मित की एक हल्की सी रेखा खिंच गई। लॉन में लगे अशोक की ऊंची शाखाएं सलेटी दुशाला में सिमटने लगीं थीं ... शाम को दिए गए पानी की बूंदें अभी तक छोटे पौधों के फूल- पत्तों पर सुस्ता रहीं थीं, हल्की हवा से टहनियां हिलने पर यूं आभास हो रहा था मानो ट्यूब लाईट की दूधिया रौशनी उनके साथ मानों आँख मिचौली खेल रही हो । कस कर शाल लपेटती हुई मानवी उठ खड़ी हुई कि उसकी नजर नीचे गिरी कलम पर पड़ी... अरे! कहते हुए उसने झुक कर कलम उठा ली। ग्यारसी बाई! ....अंधेरा घिर आया है .. चलो जल्दी घर जाओ... भीतर आते ही ...