प्रेम, भक्ति एवं नारी स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति-मीराँ



मीनाक्षी जोशी
हिन्दी साहित्य के इतिहास में मीराँ बाई का काव्य एवं उनका व्यक्तित्व विलक्षण और अद्वितीय है। मीराँ का काव्य एक ओर तो भक्ति से परिपूर्ण परम सौन्दर्यमय सत्य की अनुभूति से सम्पन्न वह वाणी है, जो नारी के सहज सरल हृदय से निःसृत है तथा दूसरी और वह आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास, आत्मदृढ़ता, निर्भिकता अपराजित संघर्ष क्षमता का पूंजीभूत रूप है। पुरुष और नारी सृष्टि-चक्र के दो ऐसे रत्न हैं जिनके तादात्म्य में अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है। भारतीय साधना पद्धति के अनुसार 'जीवात्मा' को स्त्री तथा 'परमात्मा' को पुरुष रूप में स्वीकृत कर भक्त जन अपने मनोभावों को प्रस्तुत करते रहे हैं। इस प्रक्रिया में भक्त हृदय की मनोवृत्ति कभी दास्य, कभी सख्य, कभी शांत, कभी वात्सल्य और कभी रति भाव के रूप में प्रकट होती हैं। इनमें से रति भाव तीव्र से तीव्रतर होते हुए प्रेम पथ की साधना में उदारता और तन्मयता का जो स्वरूप प्रस्तुत करता है उसका सर्वोत्तम साक्ष्य है मीराँ। भक्तिभाव की सम्पूर्णता को ग्रहण कर, उस 'अविनाशी' पुरुष के साथ जीवन की लौ को एकाकार करने वाली मीराँ के सम्पूर्ण काव्य का उत्स यही प्रणय भाव है, जिसके बल पर उसने संसार की उपेक्षा कर, राजसी ऐश्वर्य को ठुकरा कर तथा भक्ति द्रोही सामंतशाही से संघर्ष कर प्रेम साधना के पथ पर कदम रखा। मीराँ का यह शक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व भक्ति आंदोलन के जागरण-पक्ष से सम्बद्ध है। इस आंदोलन ने भारतीय समाज में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन किए। 
प्रारंभ में मीराँ की भक्ति आर्त भाव की थी। 'विधवा की नारी गति' के कारण 'काल-व्याल' उसका शत्रु था। लोक मर्यादा उसके विरोध में थी। अतः मीराँ का विपन्न एवं आर्त्त हो जाना स्वाभाविक था। पारिवारिक विरोध तथा प्रताड़नाओं ने मीराँ की भक्ति एवं प्रेम भाव को और अधिक दृढ़ बनाया। उसका समर्पण एक प्रिया का समर्पण था, जहाँ प्रियतम के प्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई भाव न था। चैतन्य सम्प्रदाय में इसे ही 'गोपी भाव' कहा गया है। कान्ता भाव से गिरिधर को भजने वाली प्रेम दीवानी मीराँ के जीवन का एक ही मूल मंत्र था-
"म्हा गिरिधर रंग राती ।
पंचरंग चोला पहरया, सखि मा झुरमुट खेलण जाती।"
कृष्ण प्रेम के रंग में रंगी मीराँ की प्रणय अनुभूति साध्वी पत्नी की अनुभूति है, किशोर कामिनी की नहीं। यहाँ तो 'सूली उपर पिया की सेज' है। 'अँसुवन जल सर्सीचि-सींचि प्रेम बेलि' बोने वाली मीराँ के भक्त हृदय की सुलभ मनोवृत्ति अनेक पदों में सहज रूप से अभिव्यक्त है-
"आली री। म्हारे नैना बान पड़ी चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत हियड़े अणी गड़ी। 
कब री ठाड़ी पंथ निहारुं, अपने भवन खड़ी।"
वस्तुतः प्रेम भावना कोई वैधानिक तकनीक नहीं है जो बार-बार प्रयास करने से मिल जाए। दुख में भावनाएँ साकार रूप लेती हुई शब्दों में ढल जाती हैं। वैधव्य अवस्था में मीराँ के पास एकमात्र सहारा कृष्ण-भक्ति ही था। निरन्तर उनके दर्शन-वंदन करना ही मीराँ का अभीष्ट था। अपने गिरधर को तन-मन-धन अर्पित कर 'उसे' हृदय में रख लेना चाहती है। इस अभीष्ट की पूर्ति के लिए उसे सामाजिक बंधनों से जूझना पड़ा। भावनाओं का आवेग उसी ओर तेजी से बढ़ता है जहाँ प्रतिबंध लगाया जाता है। समाज ने मीराँ को रोकना चाहा पर मीराँ कब रुकने वाली थी। उसकी प्रेम-भक्ति का रंग और अधिक प्रगाढ़ होता गया -
"रंग भरी राग भरी राग सूँ भरी री।
होती खेल्याँ स्याम संग रंग सूँ भरी री॥"
ऐसे ही भावों से भीगी एक सूफी कवि की कुछ पंक्तियों का उल्लेख इस सन्दर्भ में करना अप्रासंगिक न होगा-
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या जो बिछुड़े हैं प्यारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्या?
मीराँ का प्रियतम तो उसके हृदय में ही बसा है। माधुर्य भाव की यह ज्ञान-गरिमा भाव के अनुरूप है। तभी तो मीरा के 'सोलह सिणगार' हैं- धैर्य, क्षमा, सत्य, सुमति, माधुर्य, उदारता, संतोष, चित्त की उज्जवलता, गुरुता, गंभीरता, तन्मयता, व्यग्रता, शुचिता, आत्मीयता अनन्यता और आध्यात्मिकता । मीराँ की प्रेम भावना कृष्ण को अमूर्त नहीं रहने देती। श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का आभास उसे सर्वत्र होता है। वस्तुतः भक्ति जब एकान्ततः प्रेमाश्रयी हो जाती है तब समस्त प्रेम का केन्द्र बिन्दु उसका आराध्य हो जाता है।
राजस्थानी संपुट लेकर ब्रज भाषा में अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने वाली मीराँ के पद लोक गायकी के अधिक निकट पड़ते हैं। उनकी काव्य-भाषा में लोक गीतों की तरह सीधी अभिव्यक्ति पर बल है। व्यक्तिगत तन्मयता का विस्तार अधिक है, कविता का दक्ष सम्प्रेषण कम। यह अवश्य है कि आधुनिक नारी सशक्तीकरण युग के बहुत पहले मीराँ ने अपने आप को सशक्त बना लिया था। सामाजिक दबाव तभी सफल होते हैं, जब व्यक्ति में न अपने को समझने का विवेक हो, न हवा के विपरीत चलने का इरादाऔर न अपनी शर्तों पर जीने का माद्दा। मीराँ ने समूचे जीवन को निर्णायक क्षणों की श्रृंखला में पिरो कर जिस प्रकार अपनी परिधि का विस्तार किया, वह उसकी वैयक्तिक उपलब्धि न रहकर स्त्री-विमर्श को रवानगी देने का सकारात्मक आन्दोलन बन जाती है। मीराँ उस समाज की प्रतिनिधि थी जिनमें नारी पर समाज के बन्धन कुछ अधिक ही थे। इन बंधनों को तोड़ना कितना दुष्कर रहा होगा। मीरों के समक्ष सबसे कठिन घड़ी पति, पिता और श्वसुर की मृत्यु के बाद आई। उन कठिन चुनौतियों के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं- "मीराँ को अपने हृदय के विवेक की सत्ता के लिए जिस अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा, उससे भक्तिकाल के किसी दूसरे कवि को नहीं। कबीर, जायसी, सूर के सामने चुनौतियाँ और कठिनाइयाँ भाव जगत की थी। मीराँ के सामने भाव जगत से अधिक भौतिक जगत की सीधे पारिवारिक और सामाजिक जीवन की चुनौतियाँ और कठिनाइयाँ थीं।"
मीराँ ने सामाजिक प्रतिष्ठा, कुल की थोथी मर्यादा को दाँव पर लगाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विद्रोह किया था। पर विद्रोह-मात्र मीरों का उद्देश्य न था, न ही स्वच्छंदता तथा स्वेराचार के लिए था और न ही आज की तरह तथाकथित मुक्ति के लिए विद्रोह था। यह विद्रोह उन लोगों के प्रति है, जो राजसत्ता, मर्यादावाद और लोक रीति के नाम पर मीराँ की अस्मिता पर चोट करना चाहते थे तथा असफल होने पर उसे 'पागल' और 'कुलनासी' कहते हैं। मीराँ के काव्य में 'लोक लाज', 'लाजसरम,' 'कुलकाण,' 'कुल की मरजादा' के त्यागने की बात बार-बार आई है। यह हिन्दू समाज में व्याप्त जड़ता और आडम्बर पर जबर्दस्त प्रहार है। इन रूढ़ियों ने नारी स्वाभिमान को कितनी चोटें पहुँचाई होंगी? कहा जाता है कि जब वे वृंदावन में चैतन्य सम्प्रदाय के बड़े साधक जीवगोस्वामी से मिलने गईं तो उन्होंने कहलवाया कि वे प्रकृति (नारी) से नहीं मिलते। इस पर मीराँ का उत्तर अद्भुत था- "कृष्ण के अतिरिक्त इस संसार में पुरुष है ही कौन?" यह जनश्रुति सत्य है या असत्य? इस पर बहस करना व्यर्थ है, पर इससे मीराँ के आत्माभिमान और पुरुष सत्ता को चुनौती देने वाला व्यक्तित्व अवश्य उभरता है।
इस प्रकार मीराँ के व्यक्तित्व पर विचार करें तो उसमें दृढ़ संकल्प, अपने उद्देश्य के प्रति निश्चय एवं समर्पण दिखाई देता है। उसमें रूढ़ि के प्रति विद्रोह है तो जर्बदस्त अनुशासन भी था। आक्रोश था तो संयम और आत्म-नियंत्रण भी था। आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन एक अजीब विडम्बना का शिकार है। आज के स्त्री-विमर्श में पुरुष सत्ता से पूर्ण मुक्ति की आकांक्षा है, किन्तु मीराँ केवल पुरुष वर्ग के अनुचित दबाव से मुक्ति चाहती थी। स्त्री-विमर्श के नाम पर आज लिखी जाने वाली रचनाएँ देह से मुक्ति की तलाश में भटकती नजर आती हैं, पर मीराँ का काव्य आत्मा की मुक्ति का काव्य है। उसमें देह की गुलामी की गंध तक नहीं है। मीराँ का अधिष्ठान नैतिक और आध्यात्मिक है और आज का पूर्णतः सांसारिक। आज नारी मुक्ति के बुलंद तारों के बीच मीराँ का व्यक्तित्व किस प्रकार प्रासंगिक हो सकता है, यह विचारणीय है। अतः आज का नारी-विमर्श मीराँ के स्वाभिमान और विद्रोह से तब तक प्रेरणा नहीं ले सकता, जब तक वह अपना अधिष्ठान न बदले।


मीनाक्षी जोशी
(लेखिका देश की जानीमानी साहित्यकार हैं)

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